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महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष



महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष

भारतीय इतिहास के पन्नों में कितने ही साम्राज्य अथवा राजवंशों के उत्थान एवं पतन की वीर गाथाएं अंकित है | भारत के स्वर्णिम इतिहास में राजपूतों का भी गौरवमयी स्थान रहा है | यहां के रणबांकुरे ने देश, जाति, धर्म तथा स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों बलिदान देने में भी संकोच नहीं किया | इन रणबांकुरों के त्याग एवं बलिदान पर संपूर्ण देश को गर्व रहा है  | राजपूताना कि एक रियासत मेवाड़ अपनी स्वाधीनता एवं स्वतंत्रता के लिए पूरे विश्व में जानी जाती है  | मेवाड़ रियासत का नाम समूचे राजपूताना क्षेत्र में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है |  पृथ्वीराज चौहान ,राणा कुंभा ,राणा सांगा और राव मालदेव जैसे राजाओं के समय मेवाड़ रियासत को संपूर्ण भारत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था | उसी मेवाड़ रियासत में स्वतंत्रता की अमर ज्योति जगाने वाला अंतिम राजपूत शासक महाराणा प्रताप भी हुआ |  महाराणा प्रताप को राजपूत  वीरता, शिष्टता और दृढ़ता की मिशाल माना जाता है  | असंख्य भारतीयों के लिए आज भी महाराणा प्रताप प्रेरणा के स्त्रोत हैं  | महाराणा प्रताप का स्वाभिमान भारत माता की पूंजी है | यही कारण है कि 6 जून 2019 को महाराणा प्रताप जयंती पूरे भारत में श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाई जाएगी  | महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ई०  को बादल महल (कटारगढ़) वर्तमान कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था | हिंदू कैलेंडर के अनुसार इसका जन्म जयेष्ठ शुक्ला तृतीय विक्रम सम्वत 1597 को माना जाता है | इसी तिथि को उनके जयंती पूरे भारत में धूमधाम से मनाई जाती है | महाराणा प्रताप राणा सांगा के पोते तथा मेवाड़ नरेश उदयसिंह के पुत्र थे |  इनकी माता का नाम रानी जयंता बाई था जो पाली के अखेराज मालिक सैन गिरी चौहान की पुत्री थी   | महाराणा प्रताप ही इतिहास के एकमात्र शासक हैं जिनका जन्म 1597 में विक्रम सम्वत मृत्यु 1597  ई०  में हुई |


इनके बचपन का नाम किका था ( भीलों के छोटे बच्चों को किका कहते है  इनके पिता महाराणा उदय सिंह के 20 रानियां थी और कुल 17 पुत्र थे | महाराणा प्रताप उनके सबसे बड़े पुत्र थे ,  परंतु पिता उदय सिंह अपनी भटियानी रानी धीरबाई से अत्यधिक प्रेम करते थे और उन्हीं के प्रभाव में आकर अपनी मृत्यु से पूर्व हुई धीरबाई के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था  | महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के साथ ही मेवाड़ में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरंभ हो गया कुछ राजपूत लोगों जगमाल को ही अपना शासक बनाए रखना चाहते थे | तो कुछ अमीर राजपूत है  प्रजा हितेषी प्रताप के समर्थक थे अंत में राणा प्रताप इस संघर्ष में विजयी रहे और 28 फरवरी 1572 को 32 वर्ष की आयु में प्रताप की कमर में राजकीय तलवार बांधकर (गोगुंदा) उदयपुर में उनका राजतिलक किया गया |  कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनका राजतिलक विधिवत रूप से कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था 32 वर्ष की आयु में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन राणा प्रताप के लिए मेवाड़ की शान को बनाए रखना आसान नहीं था क्योंकि निरंतर युद्ध के कारण मेवाड़ की राजनैतिक आर्थिक दशा खराब हो चुकी थी | यहां तक कि चित्तौड़ दुर्ग सहित मांडलगढ़  बागौर जहाजपुर आदि परगनो पर मुगलों का अधिकार हो चुका था राजपूताना बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था बादशाह अकबर की क्रूरता के आगे अनेक राजपूत नरेशों ने अपने सिर झुका लिए थे |  जोधपुर, बीकानेर , जैसलमेर जैसे राज्य भी मुगलो के आश्रित बन चुके थे  | मेवाड़ चारों ओर से मुगलों तथा उनके आश्रितों राजाओं से घिर चुका था ऐसी स्थिति में मेवाड़ रियासत का स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना राणा प्रताप के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम था |  दिल्ली का तुर्क सरदार अकबर भारत के सभी राजाओं को अपने अधीन कर अपने इस्लामिक परचम को पूरे हिंदुस्तान में फहराना चाहता था  | लेकिन मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार करना राणा प्रताप तथा  सिसोदिया वंश के गौरव और शान के खिलाफ था | स्वाभिमानी राजघरानों और अपने पूर्वजों की मर्यादा को बनाए रखने के लिए राणा प्रताप किसी भी कीमत पर मुगल सम्राट अकबर के सामने झुकने को तैयार नहीं थे  | अपनी रियासत की आजादी के लिए कुर्बानी तो उनके खून में समायी थी |
 राणा प्रताप का यही स्वाभिमान सम्राट अकबर की आंखों में खटकता था | अपने दृढ़ संकल्प और राजपूती वीरता के साथ राणा प्रताप ने अकबर के साथ भावी संघर्ष की तैयारी शुरू कर दी  | प्रताप ने मेवाड़ के स्वामीभक्त सरदारों तथा आदिवासी भीलों की सहायता से एक शक्तिशाली सेना संगठित की  | सैन्य व्यवस्था में आदिवासी भीलों को महत्वपूर्ण पद प्रदान कर उनका सम्मान किया गया  | महाराणा प्रताप अपनी राजधानी को गोगुन्दा से कलेवाड़ा  ले गए और साथ ही मेवाड़ की जनता से अपनी रियासत के स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया  | महाराणा प्रताप की भावी तैयारियों को देखते हुए मुगल सम्राट अकबर ने भी राणा प्रताप के अस्तित्व को मिटाने का निश्चय कर लिया , परंतु महाराणा प्रताप के 81  किलो के भाले  ,72 किलो के कवच का मुकाबला करना अकबर के लिए आसान नहीं था  |
कहां जाता है  7 फीट 5 इंच के महाराणा प्रताप जब दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़े चेतक पर सवार होकर 81 किलो के भाले और 72 किलो के कवच तथा साथ दो तलवार ( इन सब का वजन मिलाकर 208 किलो होता था ) लेकर चलते थे|  तो दुनिया के सबसे बड़े बड़े बादशाह अपने दांतों तले उंगलियां दबा लेते थे |
 अतः सम्राट अकबर ने भी राजनीतिक सूझबूझ से मेवाड़ रियासत को अपने अधीन करने की योजना बनाई| महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के 4 महीने बाद ही अकबर ने अपने विश्वासपात्र एवं राजनैतिक वार्ताओं में दक्ष मंत्री जलाल खान को राणा प्रताप से मिले भेजा  |अकबर  का यह प्रयास रंग नहीं लाया | तभी अप्रैल 1573 में सम्राट ने आमेर के राजकुमार मानसिंह को उदयपुर भेजकर महाराणा प्रताप को समझाने का प्रयास किया | मेवाड़ नरेश किसी भी वार्ता या समझौते के लिए तैयार नहीं थे | अक्टूबर 1573 में शासक भगवान दास तथा दिसंबर 1573 में टोडरमल जैसे राजनीतिज्ञ  भी राणा प्रताप के  इरादों को टस से मस नहीं कर सके |
अब मेवाड़ की स्वतंत्रता सम्राट के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थी  |संधि के चारों प्रयास विफल हो जाने पर अकबर ने मानसिंह के नेतृत्व में 3 अप्रैल 1576 को शाही सेना को रवाना कर दिया | मानसिंह का माडलगढ पहुंचने का समाचार सुनकर प्रताप ने भी सेना सहित कुंभलगढ़ से गोगुंदा गए  | इसके बाद राणा प्रताप गोगुंदा से निकलकर खमनौर से 10 मील दक्षिण पश्चिम में लोसिंग गांव पहुँचे  यही हल्दीघाटी नामक जगह है जो राजसमंद जिले में नाथद्वार से 11 मील दक्षिण पश्चिम में गोगुंदा और खमनौर के बीच एक संकरा स्थान है  | यहां की मिट्टी हल्दी के समान पीली होने के कारण स्थान को हल्दी घाटी कहा जाता है |
 21 जून 1576 हल्दीघाटी के मैदान में मुगलिया सेना और रणबाँकुरी मेवाडी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ जो भारत के इतिहास में हल्दीघाटी युद्ध के नाम से जाना जाता है  कर्नल टोड जैसे इतिहासकारों ने इस युद्ध को मेवाड़ किथर्मोपल्ली”  कहा है | कहा जाता है कि इस युद्ध में महाराणा प्रताप के पास 29,000 सैनिक थे और अकबर की शाही सेना में 85,000 सैनिक थे | मुगलों की विशाल सेना युद्ध के आरंभ होती मेवाड़ भूमि की और उमड़ पड़ी विशाल सेना के साथ पठान योद्धा ,कुशल राजपूत और तोपखाना  भी था  |युद्ध के प्रथम चरण में महाराणा प्रताप की सेना ने  वीरता और साहस के साथ मुगल सेना के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया  मुगल दस्ता युद्ध से भागकर 10-12  मिल पीछे हट गया  और बनास नदी के तट पर एकत्रित होने लगा | इस प्रकार युद्ध का पहला चरण राणा प्रताप के पक्ष में रहा | महाराणा प्रताप की विजय के आसार दिखाई देने लगे थे परंतु सयैदों के पराक्रम से बजी पलट गई  | सयैद  सरदार मिहतर खां यह चिल्लाता हुआ किबादशाह सल्तनत स्वंय  आ पहुँचे है अपने दस्ते का हौसला बढ़ाते हुए आगे आया इससे भागते हुए मुगल सैनिकों के पांव थम दस्ते और वे वापिस लौट कर मेवाड़ी सेना से भीड़ गए इस बार दोनों सेनाओ ने असाधारण पराक्रम दिखाया | महाराणा प्रताप और मानसिंह लड़ते हुए एक दूसरे से सामने खडे हुए पता प्रताप ने  पुरे वेग के साथ अपना भला मानसिंह की तरफ फेंका  मानसिंह सतर्क था और जवाब में उसने चाकू से चेतक ( घोड़े) की अगली टांग जख्मी कर दी | मुगल सेना के दस्ते ने  राणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया |
 चेतक बुरी तरह से घायल हो चुका था  |ऐसी विकट स्थिति में एक भील सरदार ने  प्रताप का मुकुट और छत्र अपने सिर पर धारण कर लिया | मुगल सेना उसको राणा प्रताप समझकर उसका पीछा करने लगी  |इस प्रकार राणा प्रताप को युद्ध से भागने का अवसर मिल गया | प्रताप  के युद्ध से हटने के बाद भी घमासान युद्ध जारी रहा | मान सिंह  उचित समय पर सुरक्षित सैनिकों को भी युद्ध में झोंक दिया | थकी हुई मेवाडी सेना सरदार झाला बिंदा के मरते ही युद्ध समाप्त हो गया |  हल्दीघाटी युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप  पराक्रमी चेतक पर सवार होकर पहाड़ों में आश्रयलेने के लिए जा रहे थे  | मुगल सैनिक उनके पीछे लगे थे |  चेतक और भी तेज रफ़्तार से दौड़ने लगा | लेकिन रास्ते में नाला बह रहा था  |  21  किमी चौड़े नाले को चेतक ने बिजली की रफ्तार से पार् कर अपनी भक्ति का परिचय दिया जो इतिहास में अमर हो गई | हल्दीघाटी युद्ध के बाद प्रताप का समय जंगलों में व्यतीत हुआ | अरावली की गुफाएं उनका आवास थी | शिला ही उनकी शैया बनी रही | अपनी छापामार प्रणाली  से उन्होंने कई बार मुगल सम्राट अकबर को मात दी | अकबर और प्रताप के बीच हुआ हल्दीघाटी युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ |  ऐसा माना जाता है कि हल्दीघाटी युद्ध में तो अकबर विजय रहा न हीं महाराणा प्रताप हारे |  मुगलों के सैन्य शक्ति की जीत हुई | तो महराणा की झुझारू शक्ति भी नहीं हारी | सम्राट अकबर की अधिकता को स्वीकार नहीं करने के इरादे पर महाराणा प्रताप अटल रहे |  जंगलों में रहकर युद्ध और शिकार के दौरान लगी चोटों की वजह से 19 जनवरी 1597  में चाँवड़ में  महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई | मेवाड़ की धरती को मुगलों के आतंक से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने जिस वीरता और शौर्य का परिचय दिया ,  अकबर भी उनका कायल था | कहा जाता है इस महान योद्धा की मृत्यु पर अकबर की आंखें भी नम हो गई | अकबर ने कहा था इस संसार में नासवान है |राज्य और धन तो कभी भी नष्ट हो सकता है परंतु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं होती | हिंद के राजाओ  में महाराणा प्रताप भी ऐसा राजा है जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा|  अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप को हमारा शत शत नमन !

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